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देश के 80 फीसदी लोग मुफ्त कानूनी मदद के हकदार, न्याय पाने के लिए अब भी लंबी है कतार

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राहुल पाण्डेय, नई दिल्ली: पिछले दिनों इंडिया रिटस रिपोर्ट 2025 आई है, जिसमें भारत की न्यापालिका, पुलिसिंग जेलों और न्यायिक व्यवस्था की विविधता को लेकर कई शोध शामिल हैं। कुछ मामलों में न्यायिक व्यवस्था बेहतर हुई है, कुछ को लेकर अभी काफी काम करना बाकी है। इस रिपोर्ट की प्रधान संपादक माया दारूवाला है। रिपोर्ट पर उनसे बात की NBT के राहुल पाण्डेय ने पेश है बातचीत के अहम अंश।



सवाल: दुनिया भर में भारत में रूल ऑफ लॉ की रैकिंग में थोड़ी सी गिरावट आई है, लेकिन कुछेक चीजें सुधरी भी है?

जवाब: न्याय व्यवस्था के लिए बजट, वर्कफोर्स और सुविधाओं की भारी कमी है। हमारी आबादी 1.4 अरब से अधिक है। ऐसे में न्याय प्रणाली के संसाधन कम होंगे तो उसके हाल का खयाल किया जा सकता है। इसलिए न्याय मिलने में देरी स्वाभाविक है। जहां तक क्षमता की बात है तो हमने रिपोर्ट में सभी राज्यों की पुलिस, जेलों की क्षमता, न्यायपालिका, कानूनी सहायता और राज्य मानवाधिकार आयोगों को रैकिंग दी है, ताकि जो जिस क्षेत्र में पीछे हैं, उसमें सुधार ला सकें।



सवाल: न्यायिक व्यवस्था के तहत पुलिस में अभीतक महिलाओं और कई वर्गों के लिए एक तरह का पूर्वाग्रह दिखता है?

जवाब: सच्चाई यही है कि जिनके लिए सिस्टम बना है, वे ही उसमें नहीं दिखते। आप आंकड़े देखिए महिलाओं की संख्या पुलिस में केवल 12% है प्रावधान है कि हर पुलिस स्टेशन में कम से कम 10 महिला कॉन्स्टेबल और 3 महिला सब इंस्पेक्टर स्तर की अधिकारी हों। लेकिन ऐसा आपको कहां देखने को मिलता है? 20 लाख की पुलिस फोर्स में 960 महिला IPS अधिकारी हैं। ऐसे ही पुलिस में 11% SC ऑफिसर 14% SC कॉन्स्टेबल 8% ST ऑफिसर और 9% ST कॉन्स्टेबल, 18% OBC अधिकारी और 26% OBC कॉन्स्टेबल है। जब तक प्रशासन में समूचे समाज की न्यायसंगत भागीदारी नहीं होगी, न्याय अधूरा रहेगा।



सवाल: लीगल ऐड (AID) और पैरालीगल वॉलंटियर्स की हालत तो अच्छी नहीं है। इसमें क्या सुधार किए जाएं?

जवाब: देश के 80% लोग मुफ्त कानूनी सहायता पाने के हकदार हैं। लीगल ऐड की व्यवस्था बनी ही कमजोर तबकों के लिए है। विडंबना है कि या तो लोगों को इसकी जानकारी नहीं है या इससे उम्मीद ही नहीं है। इस महत्वपूर्ण सेवा पर मात्र 6 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च करते हैं। आज एक लीगल ऐड क्लीनिक को 163 गांव कवर करने पड़ते हैं। पांच साल में पैरालीगल वॉलंटियर्स की संख्या 38% कम हो गई है। कानूनी सहायता सेवा को प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह देखने की जरूरत है। स्मार्टफोन से भी इसका प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। पंचायत स्तर पर लोगल ऐड क्लीनिक और पैरालीगल वॉलेंटियर्स की बहाली होनी चाहिए।



सवाल: नई आपराधिक संहिता का जुडिशल सिस्टम पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

जवाब: इन कानूनों को आए 1 साल ही हुआ है। सरकार अभी इन्हें लागू करने पर जोर दे रही है। भारतीय न्याय संहिता में 13 नए अपराध शामिल किए गए हैं। 33 अपराधों में सजा बढ़ाई गई है। 13 अपराधों में सजा दोगुनी या इससे ज्यादा की गई है। 23 अपराधों में न्यूनतम सजा अनिवार्य की गई है। 7 हजार से ज्यादा अपराध ऐसे हैं, जिनमें जेल हो सकती है। इनसे हमारी जेलों में कैदियों की संख्या पर असर पड़ेगा। पुलिस और कोर्ट दोनों के लिए टाइमलाइन तय कर दी गई है, पर पुलिसकर्मियों, जयों वकीलों कोर्ट की संख्या उतनी ही है कार्यभार पहले से ही ज्यादा है। अभी हमारे पास भरपूर क्षमता नहीं है तो कई बार न्याय व्यवस्था में शॉर्टकट का रास्ता भी अपनाया जाता है, इसका भी खतरा है।



सवाल: भारत की जेलों की हालत लगातार खराब होती जा रही है। आपका क्या कहना है ?

जवाब: भारत की जेलों में औसतन 100 की जगह राष्ट्रीय स्तर पर 130 से ज्यादा कैदी हैं। देश में 34 गेल ऐसी हैं, जिनमें कई सालों से 250% ऑक्युपेंसी है। दिल्ली की तिहाड़ की दो जेलें, पश्चिम बंगाल की कांडी जेल, उत्तर प्रदेश की ज्ञानपुर सहारनपुर, सुल्तानपुर जेलों में 400% कैदी हैं। मुरादाबाद जेल में तो 100 की जगह 500 कैदी भरे हैं। पिछले दशक में विचाराधीन कैदियों की संख्या और जेलों में रहने की अवधि दोनों बढ़ी है। हर 4 में से 3 कैदी विचाराधीन हैं, जिनमें से कई का मुकदमा शुरू नहीं हुआ, कई की जांच चल रही है और उन्हें जमानत नहीं मिली है। आग हमारी जेलों में 4.36 लाख कैदियों को रखने की क्षमता है, लेकिन इनमें 5.73 लाख कैदी है। हमारा प्रोजेक्शन बताता है कि 2030 तक हमारी जेलों में 5.15 लाख कैदियों को रखने की क्षमता हो जाएगी, लेकिन तब तक कैदियों की संख्या भी बढ़कर 6.88 लाख हो जाएगी।



सवाल: कर्नाटक इकलौता राज्य है जिसने न्यायिक व्यवस्था में SC / ST / OBC का कोटा भरा है। एक विविधतापूर्ण न्यायिक व्यवस्था न होने के क्या नुकसान हैं?

जवाब: प्रतिनिधित्व और भागीदारी लोकतंत्र का जरूरी मूल्य है। इसलिए हमारे संविधान में आरक्षण का प्रावधान रखा गया था। आज जिला अदालत में अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व 5% और अनुसूचित जाति का 14% है। विविधता का मतलब है हर आवाज को बराबरी मिलना। जब न्याय व्यवस्था में सबकी भागीदारी दिखती है तो पता होता है कि लोकतंत्र सही दिशा में जा रहा है। इससे न्याय व्यवस्था और इंसाफ पर लोगों का भरोसा भी बढ़ता है।

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