वाराणसी: बाबा विश्वनाथ की नगरी है काशी। यहीं विश्वनाथ मंदिर के पास ही एक बाजार है दालमंडी। नाम तो इसका दालमंडी है, मगर इसमें अब दालें नहीं बिकती हैं। इसकी जगह मोबाइल, कपड़े, पर्स वगैरह बिकते हैं। अब इसी दालमंडी को तोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि इसे और चौड़ा किया जाएगा। वैसे तो बनारस शहर की गिनती सात पुरियों में होती है। स्कंद पुराण में भी बनारस का जिक्र है। बनारस में बनने वाले घर या इमारतें लाल बलुआ पत्थर से बनती थीं, जो कभी बनारस का हिस्सा रहे मिर्जापुर के चुनार से आते थे। इन ईंटों और पत्थरों की जुड़ाई सुर्खी और चूने से होती थी। इसीलिए बरसों बाद भी ये इमारतें उतनी ही मजबूती से खड़ी हैं। इसी बनारस में कभी बॉलीवुड के हीमैन कहे जाने वाले अभिनेता धर्मेंद्र की फिल्म-यमला, पगला, दीवाना के कुछ हिस्से यहीं पर फिल्माए गए थे।
दिन में दालों का कारोबार, रात में रईसों का मनोरंजन
मुगलों के जमाने से भी पहले से दालमंडी एक बाजार के रूप में विकसित हुई। मुगलों के दौर में यह बाजार काफी चर्चित हो गया। प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, मुंबई के डायरेक्टर रहे डॉ. मोतीचंद ने अपनी किताब ’काशी का इतिहास’ में बताया है कि दालमंडी में कभी दालों का कारोबार हुआ करता था। बनारस के रईस यहां दाल का कारोबार करते और शाम होते-होते यहां मनोरंजन भी करते। उस वक्त यहां पर भांड़ मंडली हुआ करती थी, जो इन रईसों का मनोरंजन नाच-गाकर करतीं।
तब पान खाकर इधर-उधर नहीं थूकते थे बनारसी लोग
लेखक विश्वनाथ मुखर्जी अपनी किताब ‘बना रहे बनारस’ में बताते हैं कि 18वीं सदी के आसपास यहां संगीतकार, शास्त्रीय संगीत की साधना करते थे। दालमंडी में रईस लोग शाम के समय कान में इत्र में डूबी रुई रखकर, सफेद बनारसी ड्रेस पहनकर, मुंह में पान की गिलौरी और साथ में पीकदान भी लेकर चलते थे और दालमंडी में संगीत का आनंद लेते थे। तब बनारसी लोग पान खाकर इधर-उधर थूका नहीं करते थे।
अंग्रेजों ने दालमंडी को बना दिया डॉलमंडी
बनारस से ही सितारा देवी और बागेश्वरी देवी जैसी हस्तियां निकलीं। बाद में जब अंग्रेज आए तो उन्होंने यहां पर तवायफों को बसाना शुरू किया, जहां जमींदार, रईसजादे और अंग्रेज लोग मनोरंजन के लिए आया करते। अंग्रेजों के आने बाद इस इलाके का रूप बिगड़ गया। एक समय में पूरे पूर्वांचल को दाल मुहैया कराने वाली दालमंडी का नाम इसी दौरान ‘डॉलमंडी’ भी हो गया। इसकी वजह है कि अंग्रेज तवायफों को ‘डॉल’ कहते थे। इस वक्त भी यहां दालें बिका करतीं। 18-19वीं सदी में दालमंडी में तवायफों का बसना शुरू हुआ। कुछ ही दशकों में बनारस की इस गली में अलग-अलग राग गाए जाने लगे। इन्हीं गलियों में भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपनी शहनाई से घंटों रियाज करते थे। उनकी शहनाई की गूंज जब कोठों तक पहुंचतीं तो तवायफों के पैर थिरक उठते।
न सुर रहे, न साज और न ही आवाज
दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए...एक दुकान में ये गाना बज रहा है। इस रेडीमेड कपड़ों की दुकान चलाने वाले बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़े 77 साल के तनवीर हसन बताते हैं- इस गली में नीचे दुकानों में दाल का कारोबार होता और ऊपरी मंजिल के बंद दरवाजों के बाहर तक तवायफों के घुंघरुओं, तबले की थाप और कसक में डूबी आवाज गूंजतीं। अब इन गलियों में न सुर रहे, न साज और न ही आवाज। खास बात यह है कि दालमंडी में कभी देह का सौदा नहीं होता था। यहां केवल संगीत और नृत्य की ही साधना हुआ करती थी। तनवीर बताते हैं कि पद्मा खन्ना, नरगिस, गोविंदा जैसी हस्तियों का यहां से नाता रहा है।
संजय दत्त की नानी का था बड़ा नाम
कहते हैं कि आधुनिक हिंदी के अगुवा भारतेंदु हरिश्चंद्र भी दालमंडी की इसी गली की एक नर्तकी मल्लिका के दीवाने थे। वह जब-तब उससे मिलने आ ही जाया करते। तौकीबाई, हुस्नाबाई, बॉलीवुड अभिनेत्री नरगिस की मां और संजय दत्त की नानी जद्दनबाई, छप्पन छुरी के नाम से चर्चित जानकीबाई, गौहरजान, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, विद्याधरी, ये सभी नाम पूरे देश में मशहूर थे और आज भी हैं। इनका ऐसा जलवा था कि ये अपनी प्रस्तुति देने बग्घी या डोली पर बैठकर जातीं। राजे-रजवाड़ों के जमाने में राजा और राजपुरोहित के बाद केवल राजनर्तकी ही अपने साथ चंवर और राजदंड ले जा सकती थीं।
राम तेरी गंगा मैली का कोठा यहीं फिल्माया गया
तनवीर कहते हैं एक समय फिल्मों में जो कोठा दिखाया जाता था, वह कहीं न कहीं बनारस की इन्हीं गलियों से प्रेरित था। राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में कोठे का एक हिस्सा यहीं पर फिल्माया गया था। गायन, वादन और नृत्य के जिन घरानों के लिए बनारस मशहूर रहा, उनमें से कई इसी दालमंडी से फले-फूले।
लच्छू महाराज ने भांजे गोविंदा को सिखाया तबला बजाना
दालमंडी की एक गली में बनारस घराने के मशहूर तबलावादक लक्ष्मी नारायण सिंह भी हुए। इन्हें लच्छू महाराज नाम से जाना जाता है। 71 साल की उम्र में भी जब वह तबले पर थाप देते तो वह बेजोड़ होता था। देश में जब आपातकाल लगा तो वह जेल भी गए। दालमंडी के कटरा राजपूत में लच्छू महाराज की हवेली है। लच्छू महाराज के भाई जय नारायण सिंह के बेटे वैभव सिंह ने बताया कि उनके दादा कुबेर सिंह मूल रूप से सुल्तानपुर के रहने वाले थे। जिस हवेली में अंतिम समय तक लच्छू महाराज रहे उसी हवेली में निर्मला देवी का भी जन्म हुआ। निर्मला देवी वासुदेव सिंह की बेटी थीं। यानी लच्छू महाराज की बहन। निर्मला देवी बनारस की बड़ी ठुमरी गायिकाओं में गिनी जाती हैं। निर्मला देवी के ही बेटे हैं फिल्म स्टार गोविंदा। इस लिहाज से गोविंदा का ननिहाल है दालमंडी। राज नारायण कहते हैं इसी हवेली में लच्छू महाराज ने अपने भांजे गोविंदा को भी तबला बजाना सिखाया।
दिन में दालों का कारोबार, रात में रईसों का मनोरंजन
मुगलों के जमाने से भी पहले से दालमंडी एक बाजार के रूप में विकसित हुई। मुगलों के दौर में यह बाजार काफी चर्चित हो गया। प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, मुंबई के डायरेक्टर रहे डॉ. मोतीचंद ने अपनी किताब ’काशी का इतिहास’ में बताया है कि दालमंडी में कभी दालों का कारोबार हुआ करता था। बनारस के रईस यहां दाल का कारोबार करते और शाम होते-होते यहां मनोरंजन भी करते। उस वक्त यहां पर भांड़ मंडली हुआ करती थी, जो इन रईसों का मनोरंजन नाच-गाकर करतीं।
तब पान खाकर इधर-उधर नहीं थूकते थे बनारसी लोग
लेखक विश्वनाथ मुखर्जी अपनी किताब ‘बना रहे बनारस’ में बताते हैं कि 18वीं सदी के आसपास यहां संगीतकार, शास्त्रीय संगीत की साधना करते थे। दालमंडी में रईस लोग शाम के समय कान में इत्र में डूबी रुई रखकर, सफेद बनारसी ड्रेस पहनकर, मुंह में पान की गिलौरी और साथ में पीकदान भी लेकर चलते थे और दालमंडी में संगीत का आनंद लेते थे। तब बनारसी लोग पान खाकर इधर-उधर थूका नहीं करते थे।
अंग्रेजों ने दालमंडी को बना दिया डॉलमंडी
बनारस से ही सितारा देवी और बागेश्वरी देवी जैसी हस्तियां निकलीं। बाद में जब अंग्रेज आए तो उन्होंने यहां पर तवायफों को बसाना शुरू किया, जहां जमींदार, रईसजादे और अंग्रेज लोग मनोरंजन के लिए आया करते। अंग्रेजों के आने बाद इस इलाके का रूप बिगड़ गया। एक समय में पूरे पूर्वांचल को दाल मुहैया कराने वाली दालमंडी का नाम इसी दौरान ‘डॉलमंडी’ भी हो गया। इसकी वजह है कि अंग्रेज तवायफों को ‘डॉल’ कहते थे। इस वक्त भी यहां दालें बिका करतीं। 18-19वीं सदी में दालमंडी में तवायफों का बसना शुरू हुआ। कुछ ही दशकों में बनारस की इस गली में अलग-अलग राग गाए जाने लगे। इन्हीं गलियों में भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपनी शहनाई से घंटों रियाज करते थे। उनकी शहनाई की गूंज जब कोठों तक पहुंचतीं तो तवायफों के पैर थिरक उठते।
न सुर रहे, न साज और न ही आवाज
दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए...एक दुकान में ये गाना बज रहा है। इस रेडीमेड कपड़ों की दुकान चलाने वाले बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़े 77 साल के तनवीर हसन बताते हैं- इस गली में नीचे दुकानों में दाल का कारोबार होता और ऊपरी मंजिल के बंद दरवाजों के बाहर तक तवायफों के घुंघरुओं, तबले की थाप और कसक में डूबी आवाज गूंजतीं। अब इन गलियों में न सुर रहे, न साज और न ही आवाज। खास बात यह है कि दालमंडी में कभी देह का सौदा नहीं होता था। यहां केवल संगीत और नृत्य की ही साधना हुआ करती थी। तनवीर बताते हैं कि पद्मा खन्ना, नरगिस, गोविंदा जैसी हस्तियों का यहां से नाता रहा है।
संजय दत्त की नानी का था बड़ा नाम
कहते हैं कि आधुनिक हिंदी के अगुवा भारतेंदु हरिश्चंद्र भी दालमंडी की इसी गली की एक नर्तकी मल्लिका के दीवाने थे। वह जब-तब उससे मिलने आ ही जाया करते। तौकीबाई, हुस्नाबाई, बॉलीवुड अभिनेत्री नरगिस की मां और संजय दत्त की नानी जद्दनबाई, छप्पन छुरी के नाम से चर्चित जानकीबाई, गौहरजान, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, विद्याधरी, ये सभी नाम पूरे देश में मशहूर थे और आज भी हैं। इनका ऐसा जलवा था कि ये अपनी प्रस्तुति देने बग्घी या डोली पर बैठकर जातीं। राजे-रजवाड़ों के जमाने में राजा और राजपुरोहित के बाद केवल राजनर्तकी ही अपने साथ चंवर और राजदंड ले जा सकती थीं।
राम तेरी गंगा मैली का कोठा यहीं फिल्माया गया
तनवीर कहते हैं एक समय फिल्मों में जो कोठा दिखाया जाता था, वह कहीं न कहीं बनारस की इन्हीं गलियों से प्रेरित था। राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में कोठे का एक हिस्सा यहीं पर फिल्माया गया था। गायन, वादन और नृत्य के जिन घरानों के लिए बनारस मशहूर रहा, उनमें से कई इसी दालमंडी से फले-फूले।
लच्छू महाराज ने भांजे गोविंदा को सिखाया तबला बजाना
दालमंडी की एक गली में बनारस घराने के मशहूर तबलावादक लक्ष्मी नारायण सिंह भी हुए। इन्हें लच्छू महाराज नाम से जाना जाता है। 71 साल की उम्र में भी जब वह तबले पर थाप देते तो वह बेजोड़ होता था। देश में जब आपातकाल लगा तो वह जेल भी गए। दालमंडी के कटरा राजपूत में लच्छू महाराज की हवेली है। लच्छू महाराज के भाई जय नारायण सिंह के बेटे वैभव सिंह ने बताया कि उनके दादा कुबेर सिंह मूल रूप से सुल्तानपुर के रहने वाले थे। जिस हवेली में अंतिम समय तक लच्छू महाराज रहे उसी हवेली में निर्मला देवी का भी जन्म हुआ। निर्मला देवी वासुदेव सिंह की बेटी थीं। यानी लच्छू महाराज की बहन। निर्मला देवी बनारस की बड़ी ठुमरी गायिकाओं में गिनी जाती हैं। निर्मला देवी के ही बेटे हैं फिल्म स्टार गोविंदा। इस लिहाज से गोविंदा का ननिहाल है दालमंडी। राज नारायण कहते हैं इसी हवेली में लच्छू महाराज ने अपने भांजे गोविंदा को भी तबला बजाना सिखाया।
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