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लेख: छुपाने से नहीं मिटेगी जाति, चाहे हाई कोर्ट और यूपी सरकार का इरादा कितना भी नेक हो

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लेखक: अनिल सिन्हा

जाति को लेकर घमंड दिखाने और इसके नाम पर एकजुट होने की सभी कोशिशों पर रोक लगाने के उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश से राजनीतिक क्षेत्र में बवाल मचना स्वाभाविक ही था। यह किससे छिपा है कि आज देश की राजनीति का मुख्य आधार ही धर्म और जाति है? ऐसे में सार्वजनिक जीवन में जाति के जिक्र और उसके प्रदर्शन पर अचानक रोक को लोग सहजता से नहीं लेंगे, यह तो तय है।



पहली नजर में क्रांतिकारी: ऊपर- ऊपर से इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्देश और उस पर अमल का उत्तर प्रदेश सरकार का फैसला क्रांतिकारी भी दिखाई देता है। यह कोई मामूली बात नहीं कि कि लोग अपने वाहनों पर जाति सूचक चिह्न या नारे न लिखें, पुलिस स्टेशनों व सरकारी कार्यालयों में कोई जाति न पूछे और दस्तावेजों में यह कहीं दर्ज न हो कि अपराधी या फरियादी की जाति क्या है सोशल मीडिया पर आए दिन जाति के नाम पर जो अश्लील टिप्पणियां आती रहती हैं, वे भी गायब हो जाएं।



जातिविहीन समाज का भाव: इस सबसे कुछ-कुछ जातिविहीन समाज का भाव पैदा होता है। लेकिन क्या जाति का उल्लेख मिटाने भर से जाति व्यवस्था समाप्त हो जाएगी? क्या लोग भूल जाएंगे कि उनकी जाति क्या है? क्या धार्मिक कर्मकांड के समय लोग अपनी जाति, कुल और गोत्र का नाम नहीं लेंगे? सबसे ऊपर, क्या वे शादी-ब्याह के समय जाति का ख्याल नहीं करेंगे? ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।



जो कभी नहीं जाती: बुद्ध का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य याद आता है, 'दुख एक आर्य सत्य है।' उनका दूसरा वाक्य भी उतना ही प्रेरणा देने वाला है, 'दुख का निवारण आर्य सत्य ।' दिलचस्प है कि जाति के बारे में हम यह तो कह सकते हैं कि भारतीय समाज में जाति एक सच है, लेकिन यह नहीं कह सकते कि इसका विनाश निश्चित है। यह बुद्ध से लेकर कबीर और विवेकानंद से लेकर फुले, पेरियार, आंबेडकर व लोहिया तक के प्रहार के बाद भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही।



बढ़ा हुआ आकर्षण: हाई कोर्ट ने संविधान के हवाले से हमें इस बात के लिए जरूर उकसाया है कि हम इस पर चर्चा करें कि आजादी के इतने साल बाद भी हम जाति को नष्ट तो क्या, कमजोर भी नहीं कर पाए है। सच यही है कि आज जाति व्यवस्था ज्यादा मजबूत है। इस व्यवस्था को जिस हिकारत से देखना चाहिए था, वह तो दूर रही, उलटे इसके प्रति एक तरह से बढ़ा हुआ आकर्षण और अनुराग दिखाई देता है।



जाति के नाम पर पार्टियां: राजनीति में तो यह अब इस कदर स्थापित हो चुका है कि लोग गौरव से अपनी जाति का जिक्र करते हैं। उत्तर प्रदेश इस मामले में सबसे आगे है जहां जाति या उनके आराध्यों के नाम पर पार्टियां हैं। उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार में ऐसी कई पार्टियां शामिल हैं। ताजा आदेश को लेकर वे दाएं-बाएं देख रही है। लेकिन किसी नेता का बयान पढ़ रहा था, जिसने साफगोई से कहा था कि इस आदेश का कोई तोड़ निकाल लेंगे। अब रैलियों में जाति की जगह आराध्यों के पोस्टर लगाएंगे और उन्ही के नारे लगाएंगे।' तब है कि इस आदेश से जमीनी वास्तविकता नहीं बदलेगी।



PDA पर निशाना: विपक्षी पार्टियों का मानना है कि यह कमजोर जातियों को एकजुट होने से रोकने के लिए किया जा रहा है समाजवादी पार्टी के लोग कह रहे हैं कि उनके 'PDA' यानी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक के नारे से सरकार आतंकित है उनका आरोप है कि सरकार खुद जातिवादी है और वे इसके उदाहरण भी बताते है लेकिन उनकी इस प्रतिक्रिया से भी यही जाहिर होता है कि मौजूदा राजनीति में जाति के विनाश को लेकर कोई ललक नहीं है।



जाति मिटने का भरोसा नहीं: आखिकार जाति-विनाश के लक्ष्य से प्रेरित समाजवादी पार्टी RJD समेत सामाजिक न्याय की पार्टियों को ही यह भरोसा नहीं है कि जातियां मिट सकती है। फिर BJP जैसी पार्टियों का तो कहना ही क्या अदालत के फैसले को लेकर जो तत्परता उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार ने दिखाई है, वह भी गौर करने लायक है।



अस्तित्व को नकारने की कोशिश: बहरहाल, जाति-व्यवस्था ने अब तक अपने विनाश की दिशा में किए गए हर प्रयास को पराजित किया है। ऐसे में जाति के अस्तित्व को ही अस्वीकार करने के मौजूदा कदम पर संदेह होना स्वाभाविक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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