पटना : बिहार में पहले चरण का मतदान समाप्त हो चुका है। इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले ज्यादा वोटर मतदान के लिए बाहर निकले। एसआईआर के बाद अपनी संवैधानिक मौजूदगी दर्ज कराने के लिए 64.69 फीसदी वोटरों ने मतदान किया। वोटिंग क्यों बढ़ी? विपक्ष का दावा है कि यह नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी इम्कबेंसी का नतीजा है। एनडीए इसे अपनी जीत मान रही है। दावे कई हैं, मगर दांव पर नीतीश कुमार है। राजनीतिक हलकों में 2025 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार का आखिरी चुनाव माना जा रहा है। सुशासन बाबू, नीतीश सबके हैं...जैसे तमगों से नवाजे जा चुके नीतीश कुमार क्या 10वीं बार शपथ लेंगे या नहीं? क्या तेजस्वी यादव मंडल राजनीति के दूसरे उत्तराधिकारी बन जाएंगे? यह बड़ा सवाल है।
नीतीश के ग्राउंड पर ही खेल रही हैं पार्टियां
इस सवाल के जवाब में मुजफ्फरपुर के मोहम्मद अमानुल्लाह कहते हैं कि नीतीश किसी एक जाति के नहीं हैं, वह सबके हैं। उन्होंने बिहार को उत्तर प्रदेश नहीं बनने दिया, जहां मुसलमानों के घर पर बुलडोजर चलते हैं। कुरहनी विधानसभा में आरजेडी के खुले समर्थक सबु मिर्जा ने टीओआई से बातचीत में कहा कि वह जेडीयू को वोट नहीं देते मगर पिछले 20 साल में नीतीश कुमार का कोई बड़ा विरोध किसी ने नहीं किया। चुनाव से पहले जो कैश स्कीम सरकार ने लागू किया, उससे महिला वोटर भी खुश है। चुनाव में एंटी इम्कबेंसी नजर नहीं आ रहा है। बीजेपी भी अली और बजरंग बली का जिक्र नहीं कर रही है। आरजेडी जंगलराज के यादों को मिटाने में खर्च हो रही है। बिहार में चुनाव नीतीश कुमार की खीचीं लकीर पर हो रही है।
पलटी मारकर भी खूंटा बने रहे नीतीश कुमार
40 साल की सक्रिय राजनीति में समाजवादी नीतीश कुमार की शुरुआती छवि संघर्ष करने वाले नेता की रही। बाद में वह ऐसे राजनेता के तौर पर उभरे, जो राजनीतिक सूझबूझ से लालू यादव को सत्ता से बेदखल किया। 20 साल बिहार के न सिर्फ सीएम रहे, बल्कि बिहार की राजनीति को अपने इशारे पर चलाते रहे। चुनावों में उनकी पार्टी की सीटें घटती-बढ़ती रही, मगर उनकी सत्ता स्थिर रही। बिहार में बनते-बिगड़ते गठबंधनों का खूंटा बने रहे। खास यह रहा कि बीजेपी हो या आरजेडी, जो भी विपक्ष में रहा, नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी इम्कबेंसी का माहौल नहीं बना पाया। अपनी छवि और राजनीतिक रिश्तों को ऐसे संभाला कि विपक्षी दल के नेता भी नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए। खास बात यह है कि सीएम रहने के दौरान उन्होंने कभी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा।
सरकार और सत्ता का लंबे अनुभव पर भरोसा
नीतीश कुमार देश के चुनिंदा राजनेताओं में शामिल हैं, जो लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का अनुभव है। वह 8 महीने छोड़कर 2005 से 2025 तक मुख्यमंत्री रहे। 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू की हार के बाद उन्होंने सीएम की कुर्सी छोड़ दी थी। हालांकि वह फरवरी 2015 में फिर मुख्यमंत्री बने। वह अभी तक 9 बार सीएम पद की शपथ ले चुके हैं। जेपी आंदोलन से राजनीति शुरू करने वाले नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक चुने गए । वह 1989 में बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से पहली बार सांसद बने और लगातार चुने जाते रहे। नीतीश कुमार वी पी सिंह की सरकार में कृषि राज्य मंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल और भूतल परिवहन मंत्री रह चुके हैं।
1994 में ही लालू यादव के खिलाफ ताल ठोंकी
एक मार्च 1951 में पैदा हुए नीतीश कुमार ने 1972 में बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। कुछ दिनों तक बिहार राज्य बिजली बोर्ड में काम भी किया। जेपी आंदोलन से जुड़ने के बाद लोकदल में शामिल हुए। बीते दशकों में समाजवादी विचारधारा की पार्टियों का नाम और स्वरूप बदलता रहा। इसी कड़ी में वह जनता दल का हिस्सा भी रहे। इस पार्टी से वह विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री बने। 1994 में लालू यादव के वर्चस्व और जनता दल में बढ़ते दबदबे से नाराज जार्ज फर्नांडिस ने समता पार्टी बनाई। नीतीश भी संस्थापक सदस्यों में एक थे। तब समता पार्टी की पहचान कोयरी और कुर्मी की पार्टी के तौर पर होने लगी। नीतीश कुमार ने लालू यादव पर पिछड़ों की हक की लड़ाई में कुर्मी जाति की अनदेखी का आरोप लगाया।
बिहार में एनडीए का चेहरा बने रहे नीतीश कुमार
जब बिहार की राजनीति में उठापटक का दौर चल रहा था, तब बीजेपी भी अपने जनाधार के लिए जातीय समीकरणों की तलाश कर रही थी। अविभाजित बिहार में बीजेपी सवर्ण, वैश्य और आदिवासी इलाके में जनाधार बना चुकी थी। लालू यादव की ओबीसी पॉलिटिक्स की काट के लिए उन्हें ओबीसी नेता की जरूरत थी। केंद्र में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो चुका था। 1996 में समता पार्टी बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए में शामिल हो गई। रणनीति के तहत बिहार में एनडीए के नेतृत्व की कमान नीतीश कुमार ने खुद संभाली। 2000 में बिहार विधानभा में किसी दल को बहुमत नहीं मिला, एनडीए के नेता के तौर पर नीतीश कुमार 3 मार्च 2000 को सीएम पद की शपथ ली। बहुमत नहीं होने के कारण 7 दिन बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
शरद-जार्ज जैसे जेडी-यू की दिग्गजों पर हावी रहे
2000 में कुछ दिनों के लिए नीतीश कुमार का सरकार बनाना और फिर इस्तीफा 2005 के विधानसभा चुनाव से पांच साल पहले चली गई रणनीति थी। यह दांव अटल बिहारी वाजपेयी की 1996 में बनी 13 दिन की सरकार की तरह थी। लोगों को संभावित बदलाव के बाद नए नेतृत्व की झलक मिल चुकी थी। इसका असर भी इतना था कि जब चुनाव हुए तो एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद से 20 साल तक बिहार नीतीश कुमार के शासन में चला। 2003 में समता पार्टी को नया नाम मिला जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) मिला। जेडी यू में शरद यादव, जार्ज फर्नांडिस जैसे दिग्गज राजनेता रहे, मगर पार्टी नीतीश के इशारों पर चलती रही।
14 नवंबर को जनता करेगी फैसला
दो दशक के शासन में नीतीश कुमार चार बार 2014, 2017, 2022, 2023 गठबंधन के सहयोगी बदले। 2014 और 2022 में वह आरजेडी के साथ महागठबंधन में गए, फिर वापस एनडीए में लौटे। उन्होंने 2015 में विधानसभा चुनाव आरजेडी के साथ लड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडी यू अकेले चुनाव मैदान में उतरी। इन दो चुनावों के अलावा हर चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन किया। बिहार में राजनीति करवट लेती रही मगर नीतीश कुमार जिधर भी गए, सीएम की कुर्सी उनके पास ही रही। 2025 के विधानसभा चुनाव में जेडी-यू और बीजेपी 101-101 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन का अंतिम चुनाव लड़ रहे हैं। यह नैरेटिव काफी चर्चा में है, संभव है कि 14 नवंबर को बिहार उन्हें जीत के साथ एक और कार्यकाल तोहफे में दे।
नीतीश के ग्राउंड पर ही खेल रही हैं पार्टियां
इस सवाल के जवाब में मुजफ्फरपुर के मोहम्मद अमानुल्लाह कहते हैं कि नीतीश किसी एक जाति के नहीं हैं, वह सबके हैं। उन्होंने बिहार को उत्तर प्रदेश नहीं बनने दिया, जहां मुसलमानों के घर पर बुलडोजर चलते हैं। कुरहनी विधानसभा में आरजेडी के खुले समर्थक सबु मिर्जा ने टीओआई से बातचीत में कहा कि वह जेडीयू को वोट नहीं देते मगर पिछले 20 साल में नीतीश कुमार का कोई बड़ा विरोध किसी ने नहीं किया। चुनाव से पहले जो कैश स्कीम सरकार ने लागू किया, उससे महिला वोटर भी खुश है। चुनाव में एंटी इम्कबेंसी नजर नहीं आ रहा है। बीजेपी भी अली और बजरंग बली का जिक्र नहीं कर रही है। आरजेडी जंगलराज के यादों को मिटाने में खर्च हो रही है। बिहार में चुनाव नीतीश कुमार की खीचीं लकीर पर हो रही है।
पलटी मारकर भी खूंटा बने रहे नीतीश कुमार
40 साल की सक्रिय राजनीति में समाजवादी नीतीश कुमार की शुरुआती छवि संघर्ष करने वाले नेता की रही। बाद में वह ऐसे राजनेता के तौर पर उभरे, जो राजनीतिक सूझबूझ से लालू यादव को सत्ता से बेदखल किया। 20 साल बिहार के न सिर्फ सीएम रहे, बल्कि बिहार की राजनीति को अपने इशारे पर चलाते रहे। चुनावों में उनकी पार्टी की सीटें घटती-बढ़ती रही, मगर उनकी सत्ता स्थिर रही। बिहार में बनते-बिगड़ते गठबंधनों का खूंटा बने रहे। खास यह रहा कि बीजेपी हो या आरजेडी, जो भी विपक्ष में रहा, नीतीश कुमार के खिलाफ एंटी इम्कबेंसी का माहौल नहीं बना पाया। अपनी छवि और राजनीतिक रिश्तों को ऐसे संभाला कि विपक्षी दल के नेता भी नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए। खास बात यह है कि सीएम रहने के दौरान उन्होंने कभी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा।
सरकार और सत्ता का लंबे अनुभव पर भरोसा
नीतीश कुमार देश के चुनिंदा राजनेताओं में शामिल हैं, जो लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का अनुभव है। वह 8 महीने छोड़कर 2005 से 2025 तक मुख्यमंत्री रहे। 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू की हार के बाद उन्होंने सीएम की कुर्सी छोड़ दी थी। हालांकि वह फरवरी 2015 में फिर मुख्यमंत्री बने। वह अभी तक 9 बार सीएम पद की शपथ ले चुके हैं। जेपी आंदोलन से राजनीति शुरू करने वाले नीतीश कुमार 1985 में पहली बार विधायक चुने गए । वह 1989 में बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से पहली बार सांसद बने और लगातार चुने जाते रहे। नीतीश कुमार वी पी सिंह की सरकार में कृषि राज्य मंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल और भूतल परिवहन मंत्री रह चुके हैं।
1994 में ही लालू यादव के खिलाफ ताल ठोंकी
एक मार्च 1951 में पैदा हुए नीतीश कुमार ने 1972 में बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। कुछ दिनों तक बिहार राज्य बिजली बोर्ड में काम भी किया। जेपी आंदोलन से जुड़ने के बाद लोकदल में शामिल हुए। बीते दशकों में समाजवादी विचारधारा की पार्टियों का नाम और स्वरूप बदलता रहा। इसी कड़ी में वह जनता दल का हिस्सा भी रहे। इस पार्टी से वह विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री बने। 1994 में लालू यादव के वर्चस्व और जनता दल में बढ़ते दबदबे से नाराज जार्ज फर्नांडिस ने समता पार्टी बनाई। नीतीश भी संस्थापक सदस्यों में एक थे। तब समता पार्टी की पहचान कोयरी और कुर्मी की पार्टी के तौर पर होने लगी। नीतीश कुमार ने लालू यादव पर पिछड़ों की हक की लड़ाई में कुर्मी जाति की अनदेखी का आरोप लगाया।
बिहार में एनडीए का चेहरा बने रहे नीतीश कुमार
जब बिहार की राजनीति में उठापटक का दौर चल रहा था, तब बीजेपी भी अपने जनाधार के लिए जातीय समीकरणों की तलाश कर रही थी। अविभाजित बिहार में बीजेपी सवर्ण, वैश्य और आदिवासी इलाके में जनाधार बना चुकी थी। लालू यादव की ओबीसी पॉलिटिक्स की काट के लिए उन्हें ओबीसी नेता की जरूरत थी। केंद्र में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो चुका था। 1996 में समता पार्टी बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए में शामिल हो गई। रणनीति के तहत बिहार में एनडीए के नेतृत्व की कमान नीतीश कुमार ने खुद संभाली। 2000 में बिहार विधानभा में किसी दल को बहुमत नहीं मिला, एनडीए के नेता के तौर पर नीतीश कुमार 3 मार्च 2000 को सीएम पद की शपथ ली। बहुमत नहीं होने के कारण 7 दिन बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
शरद-जार्ज जैसे जेडी-यू की दिग्गजों पर हावी रहे
2000 में कुछ दिनों के लिए नीतीश कुमार का सरकार बनाना और फिर इस्तीफा 2005 के विधानसभा चुनाव से पांच साल पहले चली गई रणनीति थी। यह दांव अटल बिहारी वाजपेयी की 1996 में बनी 13 दिन की सरकार की तरह थी। लोगों को संभावित बदलाव के बाद नए नेतृत्व की झलक मिल चुकी थी। इसका असर भी इतना था कि जब चुनाव हुए तो एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद से 20 साल तक बिहार नीतीश कुमार के शासन में चला। 2003 में समता पार्टी को नया नाम मिला जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) मिला। जेडी यू में शरद यादव, जार्ज फर्नांडिस जैसे दिग्गज राजनेता रहे, मगर पार्टी नीतीश के इशारों पर चलती रही।
14 नवंबर को जनता करेगी फैसला
दो दशक के शासन में नीतीश कुमार चार बार 2014, 2017, 2022, 2023 गठबंधन के सहयोगी बदले। 2014 और 2022 में वह आरजेडी के साथ महागठबंधन में गए, फिर वापस एनडीए में लौटे। उन्होंने 2015 में विधानसभा चुनाव आरजेडी के साथ लड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडी यू अकेले चुनाव मैदान में उतरी। इन दो चुनावों के अलावा हर चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन किया। बिहार में राजनीति करवट लेती रही मगर नीतीश कुमार जिधर भी गए, सीएम की कुर्सी उनके पास ही रही। 2025 के विधानसभा चुनाव में जेडी-यू और बीजेपी 101-101 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन का अंतिम चुनाव लड़ रहे हैं। यह नैरेटिव काफी चर्चा में है, संभव है कि 14 नवंबर को बिहार उन्हें जीत के साथ एक और कार्यकाल तोहफे में दे।
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