नई दिल्ली, 23 मई . आयुर्वेद में निर्गुण्डी को एक चमत्कारी औषधि माना जाता है. संस्कृत में इसका अर्थ है “शरीर को रोगों से बचाने वाली”. यह पौधा पूरे भारत में, विशेष रूप से 1,500 मीटर की ऊंचाई तक और हिमालय के बाहरी क्षेत्रों में आमतौर पर पाया जाता है. निर्गुण्डी के पत्तों से विशिष्ट दुर्गंध आती है और इसके नीले तथा सफेद फूलों वाली प्रजातियां प्रमुख हैं. इसके दो मुख्य प्रकार हैं: पांच या तीन पत्तों वाला और केवल तीन पत्तों वाला.
आयुर्वेदिक ग्रंथों जैसे चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में निर्गुण्डी को विषनाशक और कृमिनाशक गुणों के लिए जाना जाता है. यह वात और कफ दोष को संतुलित करती है, दर्द कम करती है, और सूजन, घाव, तथा बैक्टीरिया को नष्ट करती है. यह भूख बढ़ाने, पाचन सुधारने, लीवर को स्वस्थ रखने, और मासिक धर्म संबंधी समस्याओं में भी लाभकारी है. इसके अतिरिक्त, यह टायफाइड बुखार, खुजली, सूखी खांसी, और कान बहने जैसे रोगों में भी प्रभावी है.
निर्गुण्डी के औषधीय उपयोग अनेक हैं. सिरदर्द के लिए दो से चार ग्राम फल चूर्ण शहद के साथ लेने या पत्तों का लेप लगाने से राहत मिलती है. कान बहने की समस्या में इसके पत्तों के रस से बना तेल एक-दो बूंद डालने से लाभ होता है. गले के दर्द और मुंह के छालों के लिए इसके पत्तों के उबले पानी से कुल्ला करना फायदेमंद है. पेट की समस्याओं के लिए 10 मि.ली. पत्तों का रस, काली मिर्च, और अजवायन मिलाकर लेने से पाचन शक्ति बढ़ती है. टायफाइड में बढ़े हुए लीवर और तिल्ली के लिए इसके चूर्ण को हरड़ और गोमूत्र के साथ लेने की सलाह दी जाती है.
महिलाओं में मासिक धर्म की अनियमितता के लिए निर्गुण्डी बीज का चूर्ण सुबह-शाम लेना लाभकारी है. साइटिका और गठिया में इसके पत्तों का काढ़ा या जड़ का चूर्ण तिल के तेल के साथ लेने से दर्द में आराम मिलता है. मोच, सूजन, और चर्म रोगों जैसे एक्जिमा और दाद में इसके पत्तों का लेप या तेल लगाना प्रभावी है. मलेरिया और निमोनिया जैसे बुखार में इसके काढ़े का सेवन लाभकारी होता है.
निर्गुण्डी का उपयोग बच्चों के दांत निकलने, शारीरिक कमजोरी दूर करने, और त्वचा की समस्याओं में भी किया जाता है. इसके रस की मात्रा 10-20 मि.ली. और चूर्ण की तीन से छह ग्राम प्रतिदिन लेने की सलाह दी जाती है. यह पौधा आयुर्वेद में स्वास्थ्य और उपचार का प्रतीक है, जो प्राकृतिक रूप से रोगों से लड़ने की शक्ति देता है.
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एसएचके/एकेजे
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